Friday, June 24, 2011

मैं हूं धनी प्यार की

मैं हूं धनी प्य़ार की


मैं ने देखा है इक सपना..
इस ओर सखा ' परमात्मा '
उस ओर ' कोरा दिल 'अपना
ऱो रोकर शुरू किया जपना ।

भूखा रहा,मैं भूखा रहा
दाल न भाता,माल न भाता
भाता बस प्यार ही प्यार
चाहता बस यार की प्यार .

'पर' पूछे-
“तू काहे को रोते पगले ?
मैं तेरे प्राणोँ के रखवाले
समझ ले , तू साथ है मेरे
फिर क्योँ रोते है रे प्यारे ?

दिल बोला,
“मुझे तो कुछ भी अच्छी नहीं लगती..
मुझे किसी भी प्यार न करती..
शिकायत है मुझे हंसी न आती
बस इतना है कि रुला आती .....

'पर' बोले-
“मैं हूं जग मैं पयार का सागर..
मुझे दिया है उसता अधिकार
बहने से ही बढ जाती है..वह-
रुकने से घट जाती है .

पहले तू प्यार कर लो अपने को,
फिर तू दान कर लो अपनोँ को
तेरा बचपन,तेरा यौवन,तेरा जीवन-
ये खुशी,तेरी जान प्रियवर को..

फिर देखो हंसी तेरी आंखोँ की
फिर सुनो बोली तेरी लवू की
कह उठेगी धडकन तेरे दिल की..
धनी हूं .. मैं..धनी..प्यार की...

Friday, November 12, 2010

निबंन्ध (कक्षा-IX)

धनिया :जलती बुझती कोयला (शीर्षक) (कक्षाःIX)
लेखक परिचयः

हिन्दी के उपन्यास सम्राट श्री प्रेमचंद जी से लिखी गोदान का सशक्त
नायिका है धनिया ।इस उपन्यास में कृषक-वर्ग के प्रायः सभी समस्यायें पाठको
के सामने रखकर धनिया के पात्र द्वारा नारी-गण का एक अलग भाव दिया है उपन्यासकार।

विशेष पात्र परिचय
धनिया एक साधारण औरत थी।वह हमेशा अपनी पति और बच्चोँ के रस-पानी पर
ध्यान रखती हैं।उसका विचार यह था कि मालिक के खेत में जो काम वे करते हैं,
उसका लगान तो उनको ज़रूर देना हैं,देंगे भी।इसके ऊपर मालिक को 'खुशामदकरना',
'तलवे सहलाना' वह पसन्द नहीं करती। उनके ही शब्दोँ में--"आज न जावोगे तो कौन
हरज होगा। अभी तो परसोँ गए थे"।उसने अपने अनुभवोँ से यह सीख लिया कि
कितना मेहनत करें कितना पेट-तन काटोँ लेकिन कर्ज चुकाना बाकी रहेगा।कर्ज में
जीकर उसीमें मरना पडेगा।उनकी चिंता तो यह थी कि जिन व्यक्तियोँ से कोई लाभ
नहीं उनकी पूजा करना मूर्खता है।जीवन से लडना वह ज़रूर चाहती है लेकिन अंत में
परास्त हो जाती है।ज़िन्दगी के बारे में जो सुन्दर सपने देखी थी उनमें पानी फिरते देख
उनकी आखें सजल हो जाती है।मरे तीन सर्तानोँ की याद से वह काफी थक जाती है।
उनकी चिकित्सा में जो असमर्थता हुई वह उसके दुख की तीव्रता बढाती रहती है।इसी
दुःख ने ३६ उम्र की धनिया को बूढी सा रूप दिया है.।ज़िन्दगी के बारे में उसके दिल में
जो मान्यता थी,चिरस्थाई जीर्णावस्था ने उस मान्यता को उदासीनता में बदल दिया है।वह
सचमुच यह जानती थी कि इन सब बुरी हालतोँ का कारण इस ज़मीन्दारी प्रथा है।इन बातें
होरी को कई बार समझने में वह असफल बन जाती है।

उपसंहार
भारतीय गृहस्थी में पुरुष का ही वर्चस्व है।इसलिए कितना ही विद्रोह करें,अन्त में जीत
होरी को ही होती है।उसने परास्त होकर होरी की लाठी,मिरजयी,जूते,पगडी और तमाखू की
बटुआ लाकर सामने पटक दिया ।गृहस्थी और खेती को लेकर गंभीर नज़र रखनेवाला होरी
भी बीचबीच में धनिया के प्यार के आगे नरम और प्यारा हो जाता है।इसी कारण गरीबी मे
भी वे ' संतुष्ट ' दिखाई देते है ।आज भी धनिया हमारे बीच ज़िन्दा है ।उनकी भाषा भी
ग्रामीणता की ओर हमें ले जाते है ।जैसे रस-पानी , असुभ कोसना आदि ।

सारी मुसीबतोँ को सह-सहकर क्षण भर की खुशी भी न मिलने वाली धनिया हमारे समाजे में
अब भी है ।लेकिन हम उन्हें पहचानते नहीं ।प्रेमचंद ने नारी के एक अलग चेहरा धनिया
की ओर से हमारे सामने रखा है लेकिन उसका अंत सभी नारियोँ की तरह हुआ है ।

Thursday, November 11, 2010

पिंजडे से बाहर।

पिंजडे से बाहर ।

जनम लिया इस जग में,रो-रोकर
क्या जाना में आगे रोना बाकी है ।
फिर भी हँसना सीख लिया-
चेहरे देखर आस-पास की ।।

मना किया जाना बाहर कहीं
मना किया कुछ करना ।
"नहीं नहीं "सुन-सुनकर रोई-
सचमुच बैठ गई दिल के अदंर ।।


कहने लगी,"लडकी है तू-
जाना तुझे पराए घर"
बैठी रही यही सोचकर-
कब तोडेगी,हे रब्बी दीवार ।।

आखिर आया वह दिन
साथ दी उमंगें रात-दिन
पहचानेगी 'वो 'मुझे ज़रूर
बैठी रही राहें ताककर।।

मिली है आज़ादी पिंजडे से
छोड दी त्रासदी जीवन से
सिखा दी वो मुझे, ज़िन्दगी-
हँसने का है,रोने का नहीं।।

जाना तुझको बहुत दूर
उडना तुझे गगन की ओर
साथ दूँगा मैं,हमसफर बनके
सजा दूँगा ,तेरा सिंदूर बनके।।

कविता
posted by LeenaSreenivasan(G.M.H.S.Nadayara)

Tuesday, November 9, 2010

होरी -देश की उन्नति का मेरुदंड ।(शीर्षक)

भूमिका

साहित्य हमेशा समाज का दर्पण होता है।हिंदी के उपन्यास सम्राट-
श्री मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं में भी तत्कालीन सामाजिक स्थिति
का परिचय मिलता है।उन्होने अपनी सारी रचनाओं में उस समय
की प्रायः सभी समस्याओं की चर्चा की है।'गोदान 'प्रेमचंद का एक
ऐसा उपन्यास है,जिसमें कर्षक वर्ग की प्रमुख समस्याओं का चित्रण
मार्मिक ढंग से किया हैं।होरी और धनिया इस उपन्यास के मुख्य पात्र हैं।

विश्लेषण
प्रेमचंद ने अपने उपन्यास के नायक होरी का चित्रण सारी स्वाभाविकता
से किया है । होरी चालीस साल तक पहूँचा है , लेकिन जीवन की कटुता
ऩे उनको कमज़ोर और बूढा सा बनाया है । अपने चिरस्थायी जीर्णावस्था ने होरी को ज़मीन्दारोँ का गुलाम बना रखा है ।क्योँकि जन्म से किसान होते हुए
भी उसके पास एक बीका ज़मीन तक नहीं ।ज़मीन तो उनके लिए एक सुखद सपना मात्र है ।जीवन की विपरीत परिस्थितियोँ का सामना करते करते उसने यह पाठ सीख लिया कि अपने बचे हुए ज़िंदगी तो ज़मींदारोँ से मिलते जुलते रहने का परसाद है ।
यह उनके ही शब्दोँ में कहें तो- "यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब
तक जान बची हुई है।"
वह जीवन से परास्त होकर अपनी पत्नी को यह तत्व सिखाता है-
"जब दूसरे के पाँव तले अपनी गर्दन दवी हुई है,तो उन पावोँ को सहलाने में ही कुशल है।"
यह वास्तव में एक किसान की त्रासदी है।होरी की यही अवस्था है।

उपसंहार
होरी आम किसान की असली प्रतिनिधि है।
आज भी इसप्रकार की होरी जीवित है ।वह पहले ज़मींदारी प्रथा के गुलाम थे तो आज
समाज के अधिकार वर्ग की घृणा का पात्र है।उनकेलिए वकालत को एक प्रेमचंद थे,
लेकिन आज कोई नहीं रहा है।उनके आचार-विचार,बोलचाल सब ग्रामीण जीवन का
परिचय देता है-जैसे, 'असनान-पूजा,परसाद,पोसाक',आदि।ज़मींदारी व्यवस्था के
शिकार लोग हमारे सभ्यता केलिए प्रशन चिह्न है ।
गान्धी जी ने कहा है कि भारत की आत्मा गावोँ में है ।किसानोँ की उन्नति देश की उन्नति है । प्रेमचंद ने होरी के ज़रिये यह व्यक्त करने का प्रयास किया है ।

Monday, November 8, 2010

ज्ञानोदय़


काम करने का सबसे बडा पुरस्कार , अधिक काम करने का अवसर है ।(एड्वेर्ड साल्क)

स्वाभावीक मित्र भाग्य से ही मिलते हैं ।ऐसे मित्र विपत्ती में साथ नहीं छोड़ते ।(नारायण पंडित )

जीवन किसी को स्थायी संपत्ती के रूप में नहीं मिलाहै। (लुकीटस)
जो कमज़ोरे होता है वही सदा रोष करता है । हाथी चींटी से नहीं , चींटी-चींटी से द्वेष करती है ।(गांधिजी )


वास्तव में वे ही श्रेष्ट है , जिनके ह्रदय में सदा दया और धर्म बसता है । (मलूक दास )